प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782)
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782) ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा संघ के बीच पहला बड़ा संघर्ष था। यह मराठा उत्तराधिकार विवाद में ब्रिटिश हस्तक्षेप के कारण शुरू हुआ था और इसके परिणामस्वरूप एक लंबा संघर्ष हुआ। और अंततः एक संधि हुई ।
क्या था उत्तराधिकार विवाद?
उत्तराधिकार विवाद में ब्रिटिश हस्तक्षेप
माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद, उनके छोटे भाई नारायणराव पेशवा बन गए। हालाँकि, 1773 में उनके चाचा रघुनाथराव (राघोबा) ने उनकी हत्या करवा दी। फिर रघुनाथराव ने खुद को पेशवा घोषित कर दिया था। बरभाई परिषद ने और प्रशासकों ने रघुनाथराव के दावे को खारिज कर दिया और नारायणराव के शिशु पुत्र माधवराव द्वितीय को नया पेशवा बना दिया।
बारभाई क्या था?
बारभाई परिषद प्रभावशाली मराठा मंत्रियों और रईसों का एक समूह था, जिन्होंने रघुनाथराव (राघोबा) का विरोध किया और 1773 में नारायणराव की हत्या के बाद उत्तराधिकार संकट के दौरान वैध पेशवा, माधवराव द्वितीय की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बारभाई (शाब्दिक अर्थ बारह भाई) नाम बारह वरिष्ठ मराठा नेताओं के समूह को संदर्भित करता है, जो मुख्य रूप से शक्तिशाली परिवारों और मराठा साम्राज्य में प्रमुख प्रशासनिक पदों से हैं।
सत्ता वापस पाने के लिए रघुनाथराव ने सहायता के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर रुख किया। इसके परिणामस्वरूप रघुनाथराव और अंग्रेजों के बीच सूरत की संधि (1775) पर हस्ताक्षर हुए, जिसके तहत
अंग्रेजों ने उन्हें 2,500 सैनिक देने का वादा किया।
बदले में, रघुनाथराव ने साल्सेट और बेसिन को सौंपने और अंग्रेजों को एक बड़ी रकम देने पर सहमति जताई।
इस ब्रिटिश हस्तक्षेप ने सत्तारूढ़ मराठा नेताओं को नाराज़ कर दिया, जिसके कारण अंग्रेजों और मराठों के बीच संघर्ष हुआ, जिसने प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध की शुरुआत की।
युद्ध का परिणाम
युद्ध में कई लड़ाइयाँ हुईं और गठबंधन बदलते रहे। अंततः, युद्ध सालबाई की संधि (1782) के साथ समाप्त हुआ, जहाँ अंग्रेजों ने माधवराव द्वितीय को वैध पेशवा के रूप में मान्यता दी और रघुनाथराव के लिए अपना समर्थन वापस लेने पर सहमत हुए।
इस युद्ध ने भारत में ब्रिटिश विस्तार में देरी की, लेकिन उन्होंने सबक सीखे और बाद में मराठों के साथ अपने बाद के संघर्षों में मजबूत होकर उभरे।
1. वडगांव में ब्रिटिश हार (1779)
– बॉम्बे के ब्रिटिश गवर्नर ने रघुनाथराव का समर्थन करने के लिए कर्नल कीटिंग के नेतृत्व में एक सेना भेजी। – महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठों ने वडगांव की लड़ाई (1779) में अंग्रेजों को हराया, जिससे उन्हें वडगांव की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसने सूरत की पिछली संधि को रद्द कर दिया और अंग्रेजों को अपने कब्जे वाले क्षेत्रों को वापस करने के लिए मजबूर किया।
2. संधि को ब्रिटिशों द्वारा अस्वीकार करना और फिर से लड़ाई
– बंगाल में ब्रिटिश अधिकारियों ने वडगांव की संधि को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और युद्ध जारी रखा।
– गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स के तहत, पश्चिमी और मध्य भारत में मराठों से लड़ने के लिए एक बड़ी ब्रिटिश सेना तैनात की गई थी।
– युद्ध में कई मुठभेड़ें हुईं, जिनमें सासवाड़ और भोर घाट की लड़ाई भी शामिल थी, लेकिन कोई भी पक्ष निर्णायक जीत हासिल नहीं कर सका।
सालबाई की संधि (1782) और युद्ध का अंत
वर्षों की लड़ाई के बाद, दोनों पक्षों ने शांति की मांग की। महादजी सिंधिया की मध्यस्थता में अंग्रेजों और मराठों के बीच सालबाई की संधि (1782) हुई। संधि की शर्तों में शामिल थे
– अंग्रेजों ने माधवराव द्वितीय को पेशवा के रूप में मान्यता दी।
– अंग्रेजों ने सालसेट और एलीफेंटा द्वीप को छोड़कर मराठों को कब्जा किए गए क्षेत्र वापस कर दिए, जिन्हें उन्होंने अपने पास रख लिया।
– रघुनाथराव को मराठों ने पेंशन दे दी।
– दोनों पक्ष 20 साल की शांति और एक-दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप न करने पर सहमत हुए।
युद्ध का महत्व
– यह अंग्रेजों और मराठों के बीच पहला प्रत्यक्ष सैन्य संघर्ष था।
– मराठा एक मजबूत ताकत के रूप में उभरे, जो ब्रिटिश विस्तार का विरोध करने में सक्षम थे।
– महादजी सिंधिया ने एक प्रमुख मराठा नेता के रूप में प्रमुखता हासिल की, खासकर उत्तर भारतीय राजनीति में।
– अंग्रेजों ने भारतीय राजनीति में कूटनीति के महत्व को समझा, जिससे भविष्य में संधियाँ और गठबंधन हुए।
– इस युद्ध ने बंगाल और मैसूर पर उनकी त्वरित जीत के विपरीत, पश्चिमी और मध्य भारत में ब्रिटिश विस्तार में देरी की।
पहला एंग्लो-मराठा युद्ध एक गतिरोध में समाप्त हुआ, जिसमें किसी भी पक्ष को स्पष्ट जीत नहीं मिली। सालबाई की संधि ने दो दशकों तक शांति बनाए रखी, लेकिन द्वितीय एंग्लो-मराठा युद्ध (1803-1805) में अंग्रेजों और मराठों के बीच संघर्ष फिर से शुरू हो गया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः भारत पर ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित हो गया।
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सालबाई की संधि क्या था?
सालबाई की संधि (1782) ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के बीच एक शांति समझौता था, जिसने प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782) की समाप्ति को चिह्नित किया। इस पर गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स (अंग्रेजों की ओर से) और पेशवा माधवराव द्वितीय की ओर से एक प्रमुख मराठा नेता महादजी शिंदे (सिंधिया) के बीच हस्ताक्षर किए गए थे।
सालबाई की संधि (1782) के प्रमुख बिंदु
1. माधवराव द्वितीय को पेशवा के रूप में मान्यता
– अंग्रेजों ने आधिकारिक तौर पर माधवराव द्वितीय को वैध पेशवा के रूप में स्वीकार कर लिया और रघुनाथराव (राघोबा) से समर्थन वापस ले लिया।
2. क्षेत्रीय समायोजन
– अंग्रेजों ने सालसेट और बेसिन (वसई) को अपने पास रखा, जो उन्हें पहले दिए गए थे।
– मराठों ने युद्ध के दौरान अंग्रेजों द्वारा कब्जा किए गए अपने सभी अन्य क्षेत्रों को वापस पा लिया।
3. पारस्परिक अहस्तक्षेप
– दोनों पक्ष एक दूसरे के मामलों में या अपने सहयोगियों के साथ हस्तक्षेप न करने पर सहमत हुए।
– अंग्रेजों ने उत्तर भारत पर महादजी शिंदे के अधिकार को मान्यता दी, विशेष रूप से दिल्ली जैसे क्षेत्रों पर।
4. फ्रांसीसी के साथ शत्रुता का अंत
– मराठों ने अंग्रेजों के खिलाफ फ्रांसीसियों का समर्थन न करने पर सहमति जताई, जिससे भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व सुरक्षित हो गया।
5. 20 वर्षों तक शांति
– इस संधि ने अगले 20 वर्षों तक मराठों और अंग्रेजों के बीच शांति सुनिश्चित की, जिससे आगे के संघर्षों में देरी हुई। सालबाई की संधि का महत्व
– इसने कुछ समय के लिए भारत में ब्रिटिश विस्तार को रोका और मराठों को आंतरिक एकीकरण पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति दी।
– महादजी शिंदे ने उत्तर भारत में अपनी स्थिति मजबूत की, जिससे मुगल सम्राट पर मराठा प्रभाव बढ़ा।
– इस संधि ने वॉरेन हेस्टिंग्स को मैसूर और बंगाल में संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति दी, जिसके कारण द्वितीय एंग्लो-मैसूर युद्ध (1780-1784) हुआ।
इस अस्थायी शांति के बावजूद, ब्रिटिश और मराठा द्वितीय एंग्लो-मराठा युद्ध (1803-1805) में फिर से भिड़ गए।