bahadur Shah Zafar बहादुर शाह जफर

प्रारंभिक जीवन:

बहादुर शाह जफर द्वितीय, उसका असली नाम मिर्जा अबू जफर सिराज-उद-दीन मुहम्मद था। वह भारत के अंतिम मुगल सम्राट था । बहादुर शाह जफर का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को दिल्ली में उस समय हुआ था जब मुगल साम्राज्य अपने पतन पर था।
बहादुर शाह ज़फ़र की पैतृक पृष्ठभूमि इस प्रकार है ,बहादुर शाह जफर के वंशज की बात कहें तो वे 22 वें मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय के संतान थे। जिन्होंने 1806 से 1837 तक शासन किया। अकबर शाह द्वितीय को अपने शासनकाल के दौरान चुनौतियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अधिकार कर लिया था।बहादुर शाह जफर की मां लाल बाई थीं, जिन्हें कुदसिया बेगम के नाम से भी जाना जाता था। वह अकबर शाह द्वितीय की तीसरी पत्नी थीं। लाल बाई ने मुगल दरबार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

Bahadur Shah Zafar

बहादुर शाह ज़फर की जीवनी

बहादुर शाह ज़फ़र (bahdur shah zafar)अपने पिता की मृत्यु के बाद 28 सितंबर, 1837 को गद्दी पर बैठे। हालाँकि, इस समय तक, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी पहले ही भारत में प्रमुख शक्ति बन चुकी थी। बहादुर शाह ज़फ़र का शासन दिल्ली शहर तक ही सीमित था, और उनका अधिकार काफी हद तक औपचारिक था। ब्रिटिशों ने भारत के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया और मुग़ल साम्राज्य केवल नाम के लिए अस्तित्व में था।




बहादुर शाह ज़फर भारतीय विद्रोह का प्रतीक बने

बहादुर शाह ज़फर 1857 के भारतीय विद्रोह का प्रतीक बन गए, जिसे सिपाही विद्रोह या भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध भी कहा जाता है। विद्रोह के दौरान, उन्हें सिपाहियों (भारतीय सैनिकों) और अन्य विद्रोहियों द्वारा विद्रोह का नेता घोषित किया गया था। हालाँकि, अंग्रेजों ने विद्रोह को दबा दिया और विद्रोह के चलते सितंबर 1857 में बहादुर शाह ज़फर को पकड़ लिया गया।एक संक्षिप्त मुकदमे के बाद, बहादुर शाह ज़फ़र को ब्रिटिश-नियंत्रित बर्मा (अब म्यांमार) में रंगून (वर्तमान यांगून) में निर्वासित कर दिया गया, जहाँ उन्होंने अपना शेष जीवन बिताया। 7 नवंबर, 1862 को उनकी मृत्यु हो गई।

बहादुर शाह जफर की मृत्यु से मुगल साम्राज्य का अंत

बहादुर शाह जफर की मृत्यु ने मुगल साम्राज्य के अंत को चिह्नित किया, जो एक बार के महान राजवंश के अंतिम अध्याय का प्रतीक था जिसने सदियों तक भारत पर शासन किया था।

बहादुर शाह जफ़र की मृत्यु कब हुई

17 अक्टूबर 1858 को बाहदुर शाह ज़फर मकेंजी नाम के समुंद्री जहाज़ से रंगून पहुंचा दिए गये थे ,शाही खानदान के 35 लोग उस जहाज़ में सवार थे ,कैप्टेन नेल्सन डेविस रंगून का इंचार्ज था , उसने बादशाह और उसके लोगों को बंदरगाह पर रिसीव किया और दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी हुकूमत के बादशाह को लेकर अपने घर पहुंचा ! बहादुर शाह ज़फर कैदी होने के बाद भी बादशाह थे, इसलिए नेल्सन परेशान था, उसे ये ठीक नही लग रहा था कि बादशाह को किसी जेल ख़ाने में रखा जाये … इसलिए उसने अपना गैराज खाली करवाया और वहीँ बादशाह को रखने का इंतज़ाम कराया !
अप्रैल 1858 में, बहादुर शाह ज़फ़र को परिवार के कुछ सदस्यों के साथ निर्वासन में भेज दिया गया। रंगून की यात्रा कठिन थी और बुजुर्ग सम्राट को कठोर परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उन्होंने यात्रा की कठिनाइयों को सहन किया, जिसमें बर्मा की उष्णकटिबंधीय जलवायु भी शामिल थी, जो उत्तर भारतीय वातावरण से काफी अलग थी, जिसके वे आदी न थे।

हैरिटेज टाईम्स के अनुसार बहादुर शाह ज़फर 17 अक्टूबर 1858 को इस गैराज में गए और 7 नवंबर 1862 को अपनी चार साल की गैराज की जिंदगी को मौत के हवाले कर के ही निकले , बहादुर शाह ज़फर ने अपनी मशहुर ग़ज़ल इसी गैराज में लिखा था ….

लगता नही है दिल मेरा उजड़े दियार में
किस की बनी है है आलम न पायेदार में

 बादशाह का आखिरी पल.bahadur shah jafar ki mrutyu.

“7 नवंबर 1862 को बादशाह की खादमा परेशानी के हाल में नेल्सन के दरवाज़े पर दस्तक देती है , बर्मी खादिम आने की वजह पूछता है ..खादमा बताती है बादशाह अपनी ज़िन्दगी के आखिरी साँस गिन रहा है गैराज की खिड़की खोलने की फरमाईश ले कर आई है …. बर्मी ख़ादिम जवाब में कहता है … अभी साहब कुत्ते को कंघी कर रहे है .. मै उन्हें डिस्टर्ब नही कर सकता …. ख़ादमा जोर जोर से रोने लगती है … आवाज़ सुन कर नेल्सन बाहर आता है … ख़ादमा की फरमाइश सुन कर वो गैराज पहुँचता है बादशाह के आखिरी आरामगाह में बदबू फैली हुई थी ,और मौत की ख़ामोशी थी … बादशाह का आधा कम्बल ज़मीन पर और आधा बिस्तर पर … नंगा सर तकिये पर था लेकिन गर्दन लुढ़की हुई थी ..आँख बाहर निकली .. और सूखे होंटो पर मक्खी भिनभिना रही थी …. नेल्सन ने ज़िन्दगी में हजारो चेहरे देखे थे लेकिन इतनी बेचारगी किसी के चेहरे पर नही देखि थी …. वो बादशाह का चेहरा नही बल्कि दुनिया के सबसे बड़े भिखारी का चेहरा था … उसके चेहरे पर एक ही फ़रमाइश थी …. आज़ाद साँस की !”

हिंदुस्तान के आखिरी बादशाह की ज़िन्दगी खत्म हो चुकी थी ..कफ़न दफ़न की तय्यारी होने लगी ..शहजादा जवान बख़्त और हाफिज़ मोहम्मद इब्राहीम देहलवी ने गुसुल दिया … बादशाह के लिए रंगून में ज़मीन नही थी … सरकारी बंगले के पीछे खुदाई की गयी .. और बादशाह को खैरात में मिली मिटटी के निचे डाल दिया गया .

मरने के पहले बादशाह ने अपने एक शेर में लिखा है।
कितना बदनसीब है ज़फर दफ़न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिले कुए यार में..

उस्ताद हाफिज़ इब्राहीम देहलवी के आँखों को सामने 30 सितम्बर 1837 के मंज़र दौड़ने लगे …जब 62 साल की उम्र में बहादुर शाह ज़फर तख़्त नशीं हुआ था …वो वक़्त कुछ और था ..ये वक़्त कुछ और था ….इब्राहीम दहलवी सुरह तौबा की तिलावत करते है , नेल्सन क़बर को आखिरी सलामी पेश करता है …और एक सूरज डूब जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *